Wednesday, June 9, 2010

पृथ्वी

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यहीं  अब्र     की  छाया  है
यहीं  खिलौने-सी  काया है
यहीं   चन्द   बीमारियाँ हैं
यहीं   माया   का  साया है
यह पृथ्वी है ,  हमारे  जन्म  की   साक्षी I
हमारे मृत्यु की   साक्षी II

यहीं  जज्बातों   का चाँद  है
अन्तरमन  का   उन्माद  है
गर्द  भी   है  गुलिस्ताँ    भी
हरदम खुमार  की मुराद  है
यह  पृथ्वी  है  , हर   सुख   की     साक्षी I
हर   दुःख    की     साक्षी II

कब से कब तक का समय है
कौन  जानता क्या संशय  है
लाख  कथाएं   गढ़ी  हुयी  हैं
फिर भी झूठ संग तन्मय  है
यह पृथ्वी है , जीवन  के सच की    साक्षी I
असत्य के जाल की    साक्षी II

यहीं  ख्वाबों  की  अलक है
लक्ष्य  की धुंधली झलक है
कुछ दिल के टूटते सपने हैं
उन्हें  सजोने  को  पलक है
यह पृथ्वी है, बनते जज्बातों की    साक्षी I
टूटते ख्वाबों की    साक्षी II
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Monday, June 7, 2010

बाँसुरी की धुन बेसुरी हो गयी है

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बाँसुरी की धुन बेसुरी हो गयी है
क्यूँ गयी तुम
सात जनम कहती थी
इक जनम के पहर में खो गयी क्यूँ

गले की आवाज सूख गयी है
कोई हँसे या रोये
कोई फर्क नहीं
ख़ामोशी जहन में छा गयी क्यूँ

आँखों में वीरानगी आ गयी है
खुली हैं या बन्द
ध्यान नहीं रहता
रेत की बिसात कायम हो गयी क्यूँ.
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