मौत है करीब
कर क्या रहा हूँ
जा रहा समय मेरा
चूतिया ही बनते
अगणित हैं शर्म बीज
रोज तनके मरते
थूकता हूँ खुद पर
मूत सा बहा हूँ
मौत है करीब
कर क्या रहा हूँ
फिजूल स्वप्न लेकर
बार बार सोना
जवानी का बीज
हवस में बोना
कर्तव्य ये मिला जो
शान से सहा हूँ
मौत है करीब
कर क्या रहा हूँ
कल से करूँगा
ये कथा है पुरानी
बीत गया बचपन
जा रही जवानी
कुछ और झूठ खुद से
कुछ जैसे कहा हूँ
मौत है करीब
कर क्या रहा हूँ ..